दावा किया गया है कि अमेरिका में क्लिनिकलट्रायल के दौरान एक दवा डोस्टरलिमैब को कैंसर केएक प्रकार यानी रेक्टल कैंसर पर सौ प्रतिशत कारगर पाया गया है। ट्रायल में शामिल एक दर्जन से ज्यादा मरीजों का कैंसर पूरी तरह ठीक हो गया है।
अभी पक्के तौर पर मालूम नहीं कि दुनिया को कोरोना वायरस से पैदा महामारी कोविड-19 के असर से पूरी तरह मुक्ति कब मिलेगी। बीते ढाई वर्षों के अंतराल में इसके इलाज और बचाव संबंधी टीकों के विकास के साथ यह उम्मीद तो जगी है कि देर-सवेर हम कोरोना से पूरी तरह भयमुक्त हो जाएंगे, लेकिन बीच-बीच में इसके संक्रमण के बढ़ते मामलों से दिल सिहर उठता है। हालांकि कोरोना संक्रमण फिर से बढ़ने की सूचनाओं के बीच एक खबर ऐसी भी आई है जिससे एक मुश्किल मर्ज के पुख्ता इलाज का रास्ता खुलने की संभावना बढ़ गई है। यह खबर तकरीबन लाइलाज माने जा रहे रोग कैंसर के इलाज से जुड़ी है।
दावा किया गया है कि अमेरिका में किए गए क्लिनिकल ट्रायल में एक दवा को कैंसर के एक प्रकार पर सौ प्रतिशत कारगर पाया गया है। बताया गया है कि ट्रायल में शामिल एक दर्जन से ज्यादा मरीजों का कैंसर पूरी तरह ठीक हो गया है। यदि यह दावा सही है तो दुनिया में हर साल एक करोड़ से ज्यादा मौतों पर काबू पाया जा सकेगा जिसमें मरीज विभिन्न तरह के कैंसर के शिकार हो जाते हैं।
बेमिसाल क्यों है यह सफलता : न्यू इंग्लैंड जर्नल आफ मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि न्यूयार्क के मेमोरियल सलोन केटरिंग (एमएसके) कैंसर सेंटर में रेक्टल (गुदा) कैंसर के 18 मरीजों पर एक प्रायोगिक दवा डोस्टरलिमैब का क्लिनिकल ट्रायल किया गया। छह महीने की अवधि तक चले इस क्लिनिकल ट्रायल के बाद डाक्टरों ने पाया कि मरीजों का कैंसर पूरी तरह ठीक हो गया। मरीज स्वस्थ महसूस करने लगे। प्रत्येक तीन हफ्ते के अंतराल पर दवा देने का नतीजा यह निकला कि मरीजों में कैंसर के ऊपरी लक्षण खत्म हो गए। शुरुआत में डाक्टरों का अनुमान था कि दवा के इस्तेमाल के बाद भी मरीजों को कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी और सर्जरी आदि की जरूरत पड़ सकती है, लेकिन अभी तक की जांच-पड़ताल के नतीजे बता रहे हैं कि इन मरीजों को आगे किसी चिकित्सा की जरूरत नहीं है।
यही नहीं, मरीजों में अभी इस दवा का कोई गंभीर साइड इफेक्ट भी नहीं दिखा है। हालांकि ट्रायल में शामिल पांच में से एक मरीज या कहें कि तीन से पांच प्रतिशत मरीजों में मांसपेशियों में कमजोरी और निगलने एवं चबाने में मामूली समस्या के लक्षण दिखे, लेकिन इन पर काबू पा लिया गया। वैसे भी ये साइड इफेक्ट कैंसर के आम इलाज में पैदा होने वाले प्रतिकूल प्रभावों के सामने कुछ भी नहीं थे। सिर्फ एक दवा ऐसा करिश्मा कर सकती है और सर्जरी, कीमो या रेडियोथेरेपी की कोई जरूरत नहीं होगी, कम से कम कैंसर जैसे घातक मर्ज के मामले में, इसका भरोसा किसी को नहीं हो रहा है। यही वजह है कि इसे एक चमत्कारी औषधि की संज्ञा दी जा रही है। यहां तक कि जो लोग इसके ट्रायल की सीमित अवधि पर सवाल उठा रहे हैं, उन्हें भी अभी इस दवा में कोई बड़ी खामी नजर नहीं आ रही है।
बाकी हैं संदेह और सवाल : कैंसर के लक्षणों को पूरी तरह खत्म कर देना और साइड इफेक्ट न होना-इन दो खूबियों के कारण ही डोस्टरलिमैब दवा इतनी जल्दी पूरी दुनिया में चर्चा के केंद्र में आ गई है, पर यही वे कारण भी हैं जिन्हें लेकर कुछ लोगों द्वारा दवा पर संदेह किया जा रहा है। असल में कैंसर के प्रचलित या पारंपरिक इलाज के जो तौर-तरीके हैं, उनमें साइड इफेक्ट होना अनिवार्य है। जैसे कीमोथेरेपी से होने वाले इलाज में मरीज के शरीर में मौजूद कैंसर की कोशिकाओं के साथ-साथ सामान्य कोशिकाएं भी मर जाती हैं। इसी वजह से कीमोथेरेपी कराने वाले मरीजों के बाल झड़ जाते हैं और अन्य समस्याएं पैदा हो जाती हैं। जबकि डोस्टरलिमैब ऐसा कुछ नहीं करती। यानी यह शरीर की आम कोशिकाओं को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती।
ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि यह शरीर की प्रतिरोधक क्षमता यानी इम्यून सिस्टम के साथ मिलकर ही काम करती है। बल्कि कहना चाहिए कि इस दवा की कार्यप्रणाली ही ऐसी है, जिसके कारण साइड इफेक्ट की आशंका नहीं के बराबर रह जाती है। इसका रहस्य दवा के नाम में शामिल शब्द- ‘मैब’ में छिपा है। ‘मैब’ श्रेणी में आने वाली दवाओं का संबंध इम्यूनोथेरपी समूह से होता है। ‘मैब’ का अभिप्राय है मोनोक्लोनल एंटीबाडी। यानी ऐसी दवा जो शरीर की प्रतिरोधक शक्ति या सिस्टम के साथ मिलकर काम करे। रेक्टल कैंसर में शरीर की प्रतिरोधक क्षमता इसकी पहचान नहीं कर पाती है कि कौन सी कोशिका आम है और कौन-सी कैंसरग्रस्त। ऐसा होने की वजह यह है कि इस प्रकार के कैंसर में रोगग्रस्त कोशिकाएं साधारण कोशिकाओं का नकाब ओढ़ लेती हैं। इस दवा ने सिर्फ यह किया कि कैंसरग्रस्त कोशिकाओं के चेकप्वाइंट इनहिबिटर्स को बाधित कर दिया, जिससे कैंसर की कोशिकाएं बेनकाब हो गईं।
ऐसा होते ही शरीर की प्रतिरोधक क्षमता ने कैंसर कोशिकाओं को पहचाकर उन पर हमला बोल दिया। इस तरह दवा की भूमिका सिर्फ कैंसरग्रस्त कोशिकाओं को उजागर करने तक रही और इलाज का असली काम तो शरीर की स्वाभाविक रोगप्रतिरोधक क्षमता ने किया। चूंकि इलाज के दौरान कोशिकाओं को पहचान कर उन्हें किसी बाह्य उपाय (कीमो या रेडियोथेरेपी) से मारने की जरूरत नहीं पड़ी और यह काम अंदरूनी तौर पर अपनेआप हो गया, इसलिए बाह्य उपायों से होने वाले साइड इफेक्ट की भूमिका भी खत्म हो गई।
रास्ते की बाधाएं : डोस्टरलिमैब को लेकर इतनी सकारात्मक सूचनाओं के बाद लगता है कि दुनिया से कैंसर नामक महामारी का खात्मा बहुत जल्द होने वाला है, पर ऐसा नहीं है। असल में इसकी पहली वजह तो यह है कि यह कैंसर के सिर्फ एक प्रकार (रेक्टल कैंसर) पर कारगर पाई गई है। शरीर के अन्य अंगों, स्थानों में होने वाले कैंसर में अभी तो इसका ट्रायल तक नहीं किया गया है। ऐसे में वहां इसके असर का कोई अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। दूसरे, यह एक बेहद महंगी दवा है। फिलहाल इसकी एक खुराक की कीमत 11 हजार डालर है। रेक्टल कैंसर के मरीज को इसकी छह खुराक की जरूरत बताई गई है। इस तरह इलाज की न्यूनतम कीमत भारतीय मुद्रा में 60 से 75 लाख रुपये तक जा पहुंचती है, जिसे वहन करना चंद लोगों के वश की ही बात है। हालांकि आने वाले वक्त में इसकी कीमत में कमी आने की उम्मीद की जा सकती है।
ध्यान रखना होगा कि कैंसर का पारंपरिक इलाज अपनेआप में पहले से काफी महंगा है, लेकिन जो समस्याएं इस इलाज के रास्ते में कायम हैं, उनके कुछ जवाब आने वाले वक्त में मिलेंगे। जैसे सिर्फ 18 मरीजों पर किए गए क्लिनिकल ट्रायल को बहुत भरोसेमंद नहीं माना जा सकता है-भले ही उसकी सफलता सौ प्रतिशत क्यों न हो। पहली बात यह है कि इस तरह के परीक्षण का दायरा काफी ज्यादा बढ़ाने की जरूरत है। ऐसे ट्रायल में विभिन्न आयु वर्ग, विभिन्न देशों और अलग-अलग स्तरों के मरीजों को शामिल करके और ट्रायल की अवधि को कम से
कम पांच साल तक बढ़ाकर नतीजों की समीक्षा करने की जरूरत होगी। अगर तब भी कामयाबी की यही दर रहती है, तभी हम कह सकते हैं कि यह दवा सच में कारगर है।
एक आशंका यह भी है कि कहीं इसके पीछे दवा कंपनियों की अकूत कमाई करने का कोई एजेंडा तो नहीं है। कोरोना की दवाई के मामले में ऐसे कुछ उदाहरण सामने आए हैं, जिनमें पहले दावा किया गया कि वे कोविड का मुकम्मल इलाज मुहैया कराती हैं, लेकिन बाद में वे दावे हवा-हवाई साबित हुए। हालांकि इस बीच उन कंपनियों ने दुनिया भर में वे दवाएं बेचकर बेशुमार कमाई कर लीं। ऐसे में कैंसर की नई दवा को नमन करने से पहले उसके फायदे-नुकसान की तस्वीर साफ होने का इंतजार कर लेना सही होगा।
भारी पड़ती शारीरिक निष्क्रियता एक व्यक्ति के शरीर में कैंसर जैसी घातक बीमारी लगने का सीधा अर्थ किसी अंग या स्थान पर कोशिकाओं का अनियंत्रित रूप से बढ़ना है। कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि शरीर के उत्तकों को प्रभावित करती है और ज्यादातर मामलों में शरीर के बचे हुए हिस्सों को अपनी चपेट में ले लेती है। एक साल के शिशु से लेकर 80-90 साल के बुजुर्गों तक में कोशिकाओं की ऐसी अनावश्यक वृद्धि हो सकती है जिससे सौ से ज्यादा तरह के कैंसर पैदा होते हैं। कैंसर के कुछ प्रचलित प्रकारों में स्तन कैंसर, सर्वाइकल कैंसर, ब्लड कैंसर, बोन कैंसर, पैंक्रियाटिक कैंसर, प्रोस्टेट कैंसर, किडनी कैंसर, लंग कैंसर, मुंह एवं गले का कैंसर, त्वचा कैंसर और ब्रेन कैंसर आदि हैं।
कैंसर अक्सर शारीरिक सक्रियता के अभाव, हानिकारक एवं दूषित खानपान, शराब एवं तंबाकू आदि नशीले पदार्थों के सेवन के अलावा ज्यादा चाय-काफी पीने और ज्यादा देर तक धूप के संपर्क में रहने से हो जाता है। इसके आलावा मोटापा कैंसर की एक प्रमुख वजहों में से एक है। आनुवंशिक वजहों से भी कैंसर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होता रहा है। कई बार दवाओं के दुष्प्रभावों से कैंसर हो जाता है।
नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में कैंसर प्रभावितों की दर प्रतिलाख 70.23 व्यक्ति है। वर्ष 2020 में भारत में 13.9 लाख लोग कैंसर से पीड़ित थे। अनुमान है कि यह आंकड़ा 2025 तक 15.7 लाख तक पहुंच जाएगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक दुनिया के बाकी देशों के मुकाबले भारत में कैंसर रोग से प्रभावितों की दर कम है। हालांकि इसके बावजूद यहां 15 प्रतिशत लोग कैंसर के शिकार होकर अपनी जान गंवा देते हैं। डेनमार्क जैसे यूरोपीय देशों में कैंसर पीड़ितों की संख्या दुनिया में सर्वाधिक है, जहां कैंसर प्रभावितों की दर प्रतिलाख 338.1 व्यक्ति है। हमारे देश में कैंसर से होने वाली मौतों की ज्यादा संख्या होने का कारण यह है कि ज्यादातर लोग अस्पताल या चिकित्सक के पास तब जाते हैं, जब हालात काबू से बाहर हो जाते हैं। इस बारे में राष्ट्रीय कैंसर संस्थान का आकलन है कि देश में हर साल कैंसर से 70 हजार लोगों की मृत्यु हो जाती है, जिनमें से 80 प्रतिशत लोगों के मौत का कारण बीमारी के प्रति उदासीन रवैया है। महिला कैंसर रोगियों में 90 फीसद की मृत्यु दर की वास्तविक वजह रोग को लेकर उदासीनता बरतना ही है।